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कविता

कैसे-कैसे दिन दिखलाए

रजनी मोरवाल


नई सदी के कड़ुवेपन ने
कैसे-कैसे दिन दिखलाए।

बचपन भूखा यौवन सूखा
तंगहाल मरता है जीवन,
देख बुढ़ापा काँपे काठी
हाय-हाय करता है तन-मन,
साँसों के इस उथलेपन ने
कैसे-कैसे दिन दिखलाए।

नींव बिखरती देख घरों की
बिसुर-बिसुर कर निमिया रोए,
चौखट ने बदले मौसम में
अपने सारे रिश्ते खोए,
सूने-सूने इस आँगन ने
कैसे-कैसे दिन दिखलाए।

आँचल की ममता पाने को
मचल रही हैं नन्हीं बाँहें,
दूर देश कैसे पहुँचाए
बेटे तक अम्मा की आहें,
गीली आँखों के छाजन ने
कैसे-कैसे दिन दिखलाए।


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